Thursday, March 19, 2009

नज़्म उलझी हुई है सीने में.


नज़्म उलझी हुई है सीने में

मिसरे अटके हुए हैं होठों पर

उड़ते-उड़ते हैं तितलियों की तरह

लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम

सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुक़म्मल है

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

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गुलज़ार साहब की रचना

सांध्य दैनिक 'छत्तीसगढ़',रायपुर से साभार.

5 comments:

अनुपम अग्रवाल said...

दिल से निकले लफ्ज़

नज़्म की शक्ल मेँ

हम लोगोँ तक लाने का शुक्रिया

अनिल कान्त said...

गुलज़ार जी की ये नज़्म पढ़वाने के लिए शुक्रिया

"अर्श" said...

aap dono ko salaam...

MANVINDER BHIMBER said...

नज़्म उलझी हुई है सीने में

मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-उड़ते हैं तितलियों की तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
गुलज़ार जी की ये नज़्म पढ़वाने के लिए शुक्रिया

Malaya said...

कमाल की नज्म है। शुक्रिया...।