Friday, March 27, 2009

गुल खिले थे चांदनी में.


गुल खिले थे चांदनी में
वे नज़ारे बन गए
जब सुहानी रात आई
तो सितारे बन गए
***
हमसफ़र बनने को आए
वो हमारी राह में
दे सके मंज़िल न हमको
पर हमारे बन गए
***
क्यों मेरे ज़ज्बों की दुनिया
यूँ उड़ाती है हँसी
ज़िंदगी के सारे ग़म
मुझको दुधारे बन गए
***
दिल में रहकर भी हमारे
हमसफ़र न बन सके
अनगिनत इस ज़िंदगी के
अब किनारे बन गए
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साभार - डॉ.मनुप्रताप सिंह की रचना

4 comments:

Prakash Badal said...

वाह डॉ. साहब वाह बहुत ही रवानगी लिए हैं आपकी रचना! मेरी बधाई!

इरशाद अली said...

सून्दर प्रयास। बहुत बहुत बधाई

mehek said...

हमसफ़र बनने को आए
वो हमारी राह में
दे सके मंज़िल न हमको
पर हमारे बन गए
***
waah behtarin

rajkumari said...

बहुत सुन्दर कविता लिखी है आपने , मुझे तो पसंद आई.