Monday, March 30, 2009

अंदाज़े बयां...!


यूँ ही पढ़ते-पढ़ते मन हुआ
कि मिर्ज़ा ग़ालिब की
शायरी के चंद रंग पेश करुँ...!....तो लीजिए..
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रोने से और इश्क में बेबाक हो गए
धोये गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
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न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा कहे कोई
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख्श दो गर ख़ता करे कोई
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लाज़िम था कि देखो मेरा रास्ता कोई दिन और
तन्हां गए क्यों ? अब रहो तन्हां कोई दिन और
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नादां हो जो कहते हो कि क्यों जीते हो 'ग़ालिब'
किस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और
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जौर से बाज़ आए पर बाज़ आए क्या ?
कहते हैं हम तुमको मुँह दिखलायें क्या ?
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पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या ?
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1 comment:

बवाल said...

बड़े ही चुनिंदा शेर सुनाए भाई साहब आपने ग़ालिब बाबा के। आभार।