Sunday, April 19, 2009

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !

बाबा !
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नहीं
जहाँ की सड़कों पर
मन से ज्यादा तेज़/
दौड़ती हों मोटर गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान और
बड़ी-बड़ी दुकानें

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिसमें बड़ा-सा खुला आँगन हो
मुर्गे की बांग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह
और शाम पिछवाड़े से जहाँ
पहाड़ी का डूबता सूरज न दिखे

मत चुनना ऐसा वर
जो पोची और हडिया में डूबा रहता हो अक़्सर
काहिल-निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर

कोई थारी-लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर।
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भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित
कवयित्री निर्मला पुतुल के काव्य संग्रह
'नगाड़े की तरह बजते शब्द'की
एक लम्बी कविता का अंश..साभार.

4 comments:

Anil Kumar said...

रचना में "हिंट" का बखूबी प्रयोग हुआ है, कई मुद्दों पर फुसफुसाहट की गयी है! सुंदर!

संगीता पुरी said...

कोई थारी-लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर।
ब्‍याह के पहले की आशंका का सटीक चित्रण ...

Alpana Verma said...

मन को छू गयी यह रचना.

संभावित विवाह के बाद किसी अनजाने भय से भयभीत कन्या के मन की बातों को बखूबी प्रस्तुत किया है.

Sonali said...

सुन्दर