Saturday, April 18, 2009

काग़ज़ के घर में कलम की कथा.


काग़ज़ के घर में/
कलम ने रची एक कथा
उसने सूर्य को लिखा सूर्य
चंद्रमा को चंद्रमा/
पृथ्वी को पृथ्वी
उसने सोचा और बनाया एक ईश्वर
उसमें भरी करुणा,ममता,बल/
अहंकार,मत-मतान्तर,हत्या और मृत्यु
एक राजा एक पुजारी और ढेर सारे दास

कागज़ पर एक दिन
तितली की तरह बैठ गई कलम
उसके रंग बोल रहे थे
उसकी आभा हँस रही थी
उसके प्रत्युत्तर में
कागज़ से आने लगी खुशबू
वहाँ एक सुंदर फूल था
हिलते हुए फूल पर तितली भी हिलती
यहीं से शुरू होती है कविता।
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युवा कवि अरुण देव की रचना.
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित संग्रह
'क्या तो समय' से साभार.

4 comments:

Alpana Verma said...

'कागज़ पर एक दिन
तितली की तरह बैठ गई कलम
उसके रंग बोल रहे थे
उसकी आभा हँस रही थी...

adbhut!
bahut hi sundar kavita!

"अर्श" said...

ADBHUT RACHANA.BAHOT BADHAAYEE...


ARSH

दिनेशराय द्विवेदी said...

दोनों अत्यन्त सुंदर कविताएँ।

Anil Pusadkar said...

आभार डाक्साब अरूण जी रचनायें पढने का मौका देने के लिये