समुन्दर इतना उबलेगा किसे मालूम था पहले किसी का दम यूँ निकलेगा किसे मालूम था पहले कभी पत्थर पिघलता था किसी की आह से घायल मगर इंसां न पिघलेगा किसे मालूम था पहले ======================= श्री आर.पी.'घायल' की रचना साभार.
रोया हूँ मैं भी किताब पढ़कर पर अब याद नहीं कौन-सी शायद वह कोई वृत्तान्त था पात्र जिसके अनेक बनते थे चारों तरफ़ से मंडराते हुए आते थे पढ़ता जाता और रोता जाता था मैं क्षण भर में सहसा पहचाना यह पढ़ता कुछ और हूँ रोता कुछ और हूँ ! लेकिन मैंने जो पढ़ा था उसे नहीं रोया था पढ़ने ने तो मुझमें रोने का बल दिया मैंने दुःख पाया था बाहर किताब के जीवन से पढ़ता जाता और रोता जाता था मैं जो पढ़ता हूँ उस पर मैं नहीं रोता हूँ बाहर किताब के जीवन से पाता हूँ रोने का कारण मैं पर किताब रोना सम्भव बनाती है। ============================ श्री रघुवीर सहाय की कविता कृतज्ञता पूर्वक.