धीरे धीरे मर रहा आँखों का पानी हर तरफ़
फ़िर भी कुछ दिखता नहीं जबकी उजाला ख़ूब है
रौशनी सी तीरगी की तर्जुमानी हर तरफ़
मुल्क तो दिखता नहीं है मुल्क में यारों कहीं
दिख रही लेकिन है उसकी राजधानी हर तरफ़
किसको-किसको रोइएगा और क्या-क्या ढोइए
एक जैसी लानतें और लनतरानी हर तरफ़
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नूर मोहम्मद 'नूर'
5 comments:
रौशनी सी तीरगी की तर्जुमानी हर तरफ़
लाजवाब मिसरा जैन साहब...वाह...आपकी लेखनी का जवाब नहीं...इतने दिनों बाद नजार आये लेकिन क्या खूब नज़र आये...बहुत उम्दा रचना है ये आपकी.
नीरज
बेहयाई बेवफाई बेईमानी हर तरफ़
धीरे धीरे मर रहा आँखों का पानी हर तरफ़।
इस खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई!
मुल्क तो दिखता नहीं है मुल्क में यारों कहीं
दिख रही लेकिन है उसकी राजधानी हर तरफ़
शेर मेरे ख्याल से इसे ही कहते है अब... बहुत रिश्तों और प्रेम को नोच लिया... अब मिटटी में से गर्दन निकलने की ज़रूरत है. और ऐसे शेर कहने की ज़रूरत है... सत्य, साहसिक और अलग
बेहतरिन गजल। बधाई
बढिया रचना प्रेषित की बधाई।
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