कुचल दो मुझे
मैं उठा हुआ सिर हूँ
मैं तनी हुई भृकुटी हूँ
मैं उठा हुआ हाथ हूँ
मैं आग हूँ
बीज हूँ
आंधी हूँ
तूफान हूँ
और उन्होंने
सचमुच कुचल दिया मुझे
एक जोरदार धमाका हुआ
चिथड़े-चिथड़े हो गए वे
उन्हें नहीं मालूम था
मैं एक विस्फोट हूँ
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श्री शिवराम की कविता सादर प्रस्तुत.
Monday, June 20, 2011
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2 comments:
wonderful poem.
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thanks for sharing it here.
MUNNA BABU.
समसामयिक सार्थक,बहुत ही सुन्दर रचना...
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