Sunday, August 19, 2012

सांस्कृतिक दृष्टि : साहित्य की समझ का प्रवेश द्वार


डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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मो. 9301054300


साहित्य और संस्कृति के अंतर संबंधों पर चर्चा बहुत हुई है। एक सीमा तक साहित्य स्वायत्त भी हो सकता है। पर स्वायत्तता को उस सीमा से बाहर ले जायें और कहें कि हम अपना अलग समाज दर्शन विकसित करेंगे,इतिहास विधि विकसित करेंगे, समाजशास्त्र विकसित करेंगे, सांस्कृतिक परिवेश विकसित करेंगे तो कुछ गम्भीर प्रश्न हमारे सामने आते हैं। इतिहास के अध्ययन की जो नई विधा विकसित हो रही है, उसमें लोक साहित्य का बड़ी मात्रा में उपयोग किया जा रहा है। एक जो विवरण का इतिहास था, उससे अलग इतिहास में प्रयोग हो रहे हैं और ऐसे ग्रन्थ मौखिक विवरण पर आधारित होते हैं।

जहाँ तक सामाजिक इतिहास की बात है, जिसे एक सीमा तक आप सांस्कृतिक इतिहास कह सकते हैं, उसमें साहित्य का प्रचुर प्रयोग हुआ है। आज का दार्शनिक भी एकान्त वैयक्तिक चिन्तन में ही नहीं उलझा रहता, लोक दर्शन के प्रश्न भी दार्शनिकों के लिए और उनके एक वर्ग के लिए महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं। जहाँ तक सामाजिक विज्ञानों की बात है हम साहित्य को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि सामाजिक दस्तावेज के रूप में जो हमारे सामने आता है हम उसकी सामर्थ्य पर चिन्तन करें। उसकी सीमाओं पर विचार करें और सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए चाहे वह निरन्तरता का प्रश्न हो या परिवर्तन का प्रश्न हो, साहित्य का उपयोग बहुत सार्थक रूप से किया जा सकता है। कहना न होगा कि  सामाजिक चिंताओं और प्रश्नों की यह निरंतरता, संस्कृति के आधारभूत मूल्यों पर ही अवलंबित रहती है. इससे साहित्य की संकृति निष्ठा का सहज प्रमाण मिलता है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ साहित्यकार ही चाहते हैं कि इतिहासकार, दार्शनिक, समाज वैज्ञानिक साहित्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें। हमारी अपनी कमजोरियाँ भी हैं। एक समय अर्थशास्त्र का ऐसा रूप था, जब प्रो. राधाकमल मुखर्जी और प्रो. डी. पी. मुखर्जी जो अर्थशास्त्री थे, लेकिन उनका क्षेत्र व्यापक था। दोनों ने नैतिक प्रश्नों को अर्थशास्त्रीय व्यवहार और सिद्धान्त से जोड़ा। डी. पी. साहित्य, संगीत, कला इनको लेते हुए चलते थे और अर्थशास्त्र को एक आकर्षक रूप देते थे, क्योंकि जीवन के सन्दर्भ उससे कटे नहीं थे। धीरे-धीरे अर्थशास्त्र का रूप बदला। राधाकमल और डी. पी. का अर्थशास्त्र कविता माना जाने लगा। इसी तरह जब दिनकर ने संस्कृति के चार अद्ध्याय लिखा तो उसका स्वागत मात्र एक ऐतिहासिक कृति के रूप में नहीं, बल्कि साहित्यिक ग्रन्थ के रूप में भी किया गया.

उसके बाद प्रकार्यवाद, संरचनावाद आया और उसके बाद हम इसमें बुरी तरह से उलझ गये कि इतिहास बेकार है, दर्शन के प्रश्न बेकार हैं, शुद्ध सामाजिक तथ्यों के ही रूप में समझना चाहिए और इसमें हमें परम्परा और इतिहास में कोई सहायता नहीं मिलती है। साहित्य और संस्कृति उनके उभरते रूप के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी इन वादों से जुड़े हैं। एक बड़ी संभ्रम की स्थिति है कि हम कहाँ जाये, कितना दूसरों से संवाद करें और कर्मकाण्डीय शुचिता जो हमारे विषयों के साथ जुड़ गई है उसमें हम नये-नये अछूत पैदा कर रहे हैं। समाजशास्त्री ने दखल दिया तो साहित्य बिगड़ जायेगा और समाजशास्त्री साहित्य से आखिर क्या सीखेगा। उसमें कल्पनाओं की उड़ान ज्यादा है।

मेरा ख्याल है कि अब समय आ गया है कि हम विषयों के अभिजात्य को छोड़कर एक अन्तरअनुशासनिक संवाद स्थापित करें जो स्वायत्ता में हस्तक्षेप न करें। किन्तु नई दृष्टियाँ विकसित करने में सहायक हो। जहां तक साहित्य की बात है, जो भी सांस्कृतिक मूल्यों में निष्ठा रखता है उसे साहित्य पढ़ना चाहिए. पारिवारिक स्थितियों का चित्रण करने के लिए राजेन्द्र यादव के 'सारा आकाश' का उपयोग हो सकता है. गाँव में जो गुटबन्दी है उस पर बोलना हो तो 'राग दरबारी' की कथा सुनायी जा सकती है.

साहित्य दर्शन के बाद कैसे हुआ इसके बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है। जहाँ तक वाक्शक्ति की बात है मानव स्तम्भ प्राणी जो पूरी तरह से मानव कहीं बन सका था, सीमित वाक् शक्ति उसकी विकसित कर गयी। वैसे बड़े होते-होते रह गया। पर वाक्शक्ति वाणी, शब्दों को अर्थ दे सकने की क्षमता को हमने धरोहर में पाई थी। यह ठीक है कि वह सब विषय बहुत सीमित हैं, पर यह अनुमान करना कठिन है कि उस सीमित शब्द शक्ति और मानव के अंत:संबंध कैसे विकसित हुए।

जब उसने साहित्य की रचना की, उस साहित्य के अवशिष्ट आज हमें नहीं मिलते। यह कहना कठिन है कि इस आदि साहित्य का कितना अंश परम्परा से लोक संस्कृतियों में आया और आज भी जीवित है। पर जहाँ तक सृजन सौंदर्यबोध की बात है आस्ट्रेलिया के आदिवासी संसार के सबसे विकसित आदिवासी माने जाते हैं। हालांकि इतनी संश्लिष्ट सामाजिक संरचना दुनिया में बहुत कम जगह देखी जा सकती है। पर अभी कुछ वर्ष पूर्व जो भित्तिचित्र आस्ट्रेलिया में मिले, उनमें अमूर्त कला का बहुत सुन्दर प्रदर्शन हुआ है। तो मानव का मस्तिष्क जो निर्माण करता है, सांस्कृतिक विकास के स्तर से शायद उसका बहुत सम्बन्ध नहीं होता।

भारत में, यूरोप में इस तरह की कला बहुत मिलती है जो कुछ प्रश्न हमारे सामने प्रस्तुत करती है और वह यह कि कलात्मक विकास और सांस्कृतिक विकास का कुछ सम्बन्ध हो सकता है और कला के कुछ रूप ऐसे हैं कि जिनका शायद मानव की सृजन शक्ति से ज्यादा निकट का सम्बन्ध है। निश्चय है कि मौखिकता पहले आई, लिपिबद्धता उसके बाद आई। पर मौखिकता आज भी लिपिबद्धता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। हमें जो कहना है वह हम लिखकर भी कहते हैं, पर सम्प्रेषण की दृष्टि से मौखिकता का हमेशा आश्रय लेना पड़ता है अपने विचारों के प्रसारण के लिए।

मौखिक साहित्य के आदि रूपों के सम्बन्ध में कुछ कहना कठिन है। एक समूह जो (इस काम में जुटा) और समाज वैज्ञानिक व्यवस्था से जुड़ा उन्हें समाज में, उन्हें विश्व में पाँच हजार छ: सौ समाजों की गणना करनी पड़ी, जिन्हें स्वतन्त्र समाज माना जा सकता है। इस गणना का मानक आधार कुछ मूलभूत प्रश्न उठाता है, पर बहस की शुरूआत के लिए मेरा ख्याल है कि हम इस संख्या को मान सकते हैं।

अब इसमें अट्ठाइस समाज ऐसे मिले जिनमें लोरियाँ नहीं थी। अब गणना की भूल हो सकती है। उसके बाद उसमें एक टिप्पणी थी कि उन्हीं लोरियों की गणना की गई है, जिनके शब्दों के कुछ अर्थ होते हैं। सिर्फ ध्वनियाँ हैं जिनमें लय है ताल है पर अर्थ नहीं है उन्हें हमने लोरियाँ नहीं माना है। खैर वो तो साहित्य नहीं हो सकती। कोई ऐसा समूह नहीं है जिसमें मिथक न हो। यह सम्भव है कि उसने अपने मूल मिथकों को त्याग दिया हो और लय में स्वीकार कर लिया हो पर यह भी सच है कि एक नया धर्म एक नई संस्कृति लेने के बाद अफ्रीका में कुछ ईसाई हुए, कुछ मुसलमान बने और वहाँ मैंने उनसे पूछा कि भई ये क्या हुआ तो उनका जवाब था कि हमें तो एक पैकेज मिल रहा था और उसके साथ हमने इस्लाम भी ले लिया।

आखिर पंचतंत्र, हितोपदेश या उससे अलग हटकर सहस्त्र रजनी चरित इनका मौखिक परम्परा में विकास हुआ, ये लिपिबद्ध हुए और आश्चर्य की बात यह है कि इस लिपिबद्ध परम्परा ने नई मौखिक परम्पराओं को जन्म दिया। सहस्त्र-रजनी-चरित्र ईरान में तीन रूपों में मिलता है और पुस्तकों में आ जाने के बाद इन पुस्तकों का व्यापक प्रसार हुआ और यही कहानियां नये चरित्र के साथ आकृति कृत हुई जिसके बारे में हमें पता है, प्रामाणिक सन्दर्भ उपलब्ध हैं। पर जो अभिप्राय था, मूल भाव इनका था वो नहीं बना। वैसे तो होमर और इलियट को लेकर कहें कि मौलिक परम्परा से लिखित परम्परा में आया तो कुछ विवाद हो सकता है, पर अब निर्णायक मत इस पक्ष में है कि मौखिक परम्परा का ही वह अंग था, जो सूक्ष्म विश्लेषण के बाद लिपिबद्ध रूप में महाकाव्य से अधिक लोककाव्य के रूप में माना जाएगा। लोक संस्कृति के कुछ अंश तो समृद्ध साहित्य की धारा में आते हैं, पर उसके कुछ आकर्षण हैं जिनका विश्लेषण करना चाहिए।

मौखिक साहित्य की बात छोड़िए, आज जो साहित्य हमारे सामने है उसको लेकर कौन से प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं। पहला तो यह कि लिखता कौन है -- भोजपत्र, ताड़पत्र पर जो साहित्य लिखा गया लिखने वाले का वंशचरित किस समूह से आया है जो लेखन को प्रभावित करता था। धर्म अधिक था पर उसके साथ-साथ सृजनशीलता के भी कुछ पक्ष जुड़े थे। धर्म के रूप में महत्त्व संदिग्ध था, पर लौकिक अर्थों में भी अलौकिक की भावना को निकाल दें तो साहित्य का रूप उभर जाए।

चीन में लकड़ी के ब्लाक्स बनाये गये और उनकी संख्या इतनी अधिक थी और इतना श्रम साध्य था उसे सीमित उद्योग करना कि जिसका उपयोग जापान ने बाद में किया और वहाँ साहित्य का प्रचार एवं सीमित हिस्से में हुआ। यह तो गुटवर्ग क्रान्ति के बाद सचल टाइप के आविष्कार के बाद मुद्रण सम्भव हुआ, पर उससे जो लिपिबद्ध रूप आया और सबसे पहली किताब बाइबल अनेक रूपों और आकारों में छपी और जब वह छपी तो चर्चा में एक खलबली मच गई। अब तक धर्म-प्रचारकों के हाथ में जो शक्ति थी- वह ज्ञान सामान्य रूप से लोगों को मिलेगा और इसका क्या परिणाम होगा?

तो लेखकों के धरातल हैं, पाठकों के धरातल और साथ में प्रकाशकों के भी धरातल हैं। कविता कबीर की जन-जन तक पहुँची,पर हम वह कविता नहीं लिख रहे हैं,जो जन-जन तक पहुँच सके। इससे संस्कृति की रक्षा कैसे संभव हो सकेगी ?

साहित्य की पहुँच कितनी होती है और पहुँच और प्रभाव में बड़ा निकट का सम्बन्ध है, इसे सांस्कृतिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है. आज भी कबीर आस्थाओं को एक आधार देते हैं। नयी कविता चमत्कृत करती है, कभी समझ में आती है, कभी समझ में नहीं आती। तो एक शास्त्रीय परम्परा है एक प्रयोग की परम्परा है और एक व्यावसायिक परम्परा है। जिन प्रश्नों पर हमें विचार करना है कि परिवर्तन साहित्य के रूप और उससे जन्म लेने वाली सांस्कृतिक चेतना को को किस तरह प्रभावित करता है?

आज की नयी पीढ़ी जो पढ़ती है, माइकल जैक्सन वाली पीढ़ी, साहित्य का एक नया रूप चाहती है। हम कविता को धूम-धड़ाका और तमाशा भी बनाना चाहते हैं क्या? या अर्थहीन शब्द योजना को कुछ रंगीन कर देना चाहते हैं। नहीं, समय रहते साहित्य और संस्कृति के जीवंत संबंधों की पड़ताल करनी ही होगी, वरना समझ से दूर होते और तड़क- भड़क के निरंतर निकट पहुँचते आज के दौर में ये सम्बन्ध कहीं अपनी ही पहचान की गुहार न करने लगें ?


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1 comment:

bkaskar bhumi said...

जैन जी नमस्कार...
आपके ब्लॉग 'डॉ. चंद्रकुमार जैन' से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 24 अगस्त को 'सांस्कृतिक दृष्टि: साहित्य की समझ का प्रवेश द्वार' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
धन्यवाद
फीचर प्रभारी
नीति श्रीवास्तव