Tuesday, October 2, 2012

आग की तपन बताती हवन जैसी ज़िन्दगी



डॉ.चन्द्रकुमार जैन

========================

ज़वानी जोश है, जश्न है प्यार की अमानत है

बुढ़ापा तोश है, तश्न है, नियति की रूकावट है

आग में कितनी जलन है, धूप में कितनी तपन है

ये बताएँगे तुम्हें वो, ज़िन्दगी जिनकी हवन है.

=====================================

वृद्धावस्था एक सच्चाई ज़रूरर है, किन्तु हर युग में इसे एक सामाजिक प्रश्न की तरह देखा गया है. वृद्धावस्था में स्वयं व्यक्ति में जीवकोपार्जन की शक्ति नहीं रहती और अधिक आयु होने पर उनके लिए चलना-फिरना या सामान्य जीवन बसर करना भी कठिन होता है। अतएव वृद्धों को न केवल अपनी उदर पूर्ति के लिये अपितु अपने अस्तित्व तक के लिए दूसरों पर निर्भर करना पड़ता है। समाज के सामने सदैव यह प्रश्न मुंह बाये खड़ा रहा है कि किस प्रकार वृद्धों को समाज पर भार न बनने दिया जाए, उनको समाज का एक उपयोगी अंग बनाया जाए तथा उनकी देखभाल, उनकी आवश्कताओं की पूर्ति तथा सब प्रकार की सुविधाओं का प्रबंध किया जाए ?

यह प्रश्न 21 वीं शताब्दी में और भी जटिल हो उठा है, क्योंकि निर्वाह के साधनों और चिकित्सा के नवीन आयामों के प्रभाव से, जीवनकाल में हुए इजाफे से बुजुर्ग नागरिकों की संख्या बहुत बढ़ गई है। उनके लिए निवासस्थान, वृद्धावस्था पेंशन , सरकार द्वारा उनका भरणपोषण, जो काम करने योग्य हों उनके लिए उपयुक्त काम, बीमार होने पर चिकित्सा का प्रबंध तथा अन्य अनेक ऐसे प्रश्न हैं जो समाज को सुलझाने होंगे। इस विषय की ओर भारत की आज़ादी से पहले विशेष ध्यान नहीं दिया गया था, किंतु अब यह प्रश्न हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है.

बुढापा अपने साथ कई रोग भी लेकर आता है. पर कोई संदेह नहीं की शारीरिक दुर्बलता और बीमारी तक इस मुद्दे को सीमित रखकर और संभव हुआ तो अक्सर रहम की तर्ज़ पर कुछ दवाइयाँ या कभी-कभी कुछ मंहगा इलाज़ करवाकर परिजन अपने कर्तव्य की इति मान बैठते हैं. जबकि गहराई में जाकर पड़ताल करें तो आप पायेंगे की हमारे बुजुर्गों की तकलीफ शारीरिक से कहीं अधिक अनेक अर्थों में मानसिक है, जिसकी आम तौर पर या तो उपेक्षा कर दी जाती है या फिर उन कठिनाइयों के एवज़ में उन्हें उपहास का पात्र भी बनना पड़ता है. यह सचमुच बहुत दुखद और चिंतनीय स्थिति है. जिनकी वज़ह से ज़िन्दगी के सारे सुख और दुखों से लड़ने की ताकत मिली हो उन्हें स्वयं अपने तनावों में थोड़ी सी तसल्ली, थोड़ा सा सहारा देने वाला कोई न हो, अगर हो भी तो उनको उनके हाल पर ही छोड़ दें तो इसे क्या कहा जाये, कहना मुश्किल है.

वृद्ध व्यक्तियों में पाए जाने वाले सामान्य परिस्थिति जन्य तनावों में विधवापन/विधुर होना तथा किन्हीं नजदीकी रिश्तेदारों आदि की मृत्यु , देखभाल कर्ता की मृत्यु का भय, आर्थिक अडचनें तथा स्वतंत्रता का हनन, जीवन यापन की व्यवस्थाओं में परिवर्तन तथा सामाजिक अकेलापन प्रमुख हैं. इन समस्याओं के प्रति भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में दुख, पाप की भावना, अकेलापन, जीवन का अर्थ न रहना तथा प्रेरणा का अभाव, चिंता, गुस्सा, शक्तिहीन होने की भावना तथा अवसाद शामिल हो सकते हैं।

वृद्धावस्था में भावनात्मक चुनौतियों का सामना करने से संबंधित संसाधनों तथा कार्यनीतियों पर नैतिक मूल्यों तथा सांस्कृतिक परम्पराओं का मौटे तौर पर प्रभाव पड़ता है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को स्वीकार करना तथा मानसिक स्वास्थ्य उपचारों तथा सेवाओं को स्वीकार करने पर सांस्कृतिक कारकों का प्रभाव पड़ता है। उनको ऐसा महसूस होता है कि यह समस्याएं शर्मनाक होती हैं.उनकी मान्यता होती है कि यह उनके पिछले जन्मों के पूर्व बुरे कर्मों का फल है.उनका विश्वास होता है कि रोग का उपचार भगवान के हाथ में है; उनके विचार से दुखों को सहन करना चाहिए; वे अपने सम्मान को बनाए रखने के लिए नियंत्रित दिखाई देना चाहते हैं और भावनात्मक नियंत्रण को समाज में महत्व दिया जाता है तथा सहायता की आवश्यकता को स्वीकार करने का अर्थ है कि व्यक्ति का अपने पर नियंत्रण नहीं है।

वृद्ध रोगियों द्वारा विशिष्ट शारीरिक शिकायतों जैसे सिरदर्द, अनिद्रा, चक्कर आना अथवा अन्य अस्पष्ट शारीरिक लक्षणों के लिए उपचार का अनुरोध किया जा सकता है तथा वे मनोवैज्ञानिक चिकित्सक से उपचार करने के बचते हैं। आधुनिक स्वास्थ्य संबंधी देखभाल प्रणाली के अंतर्गत उपचार प्राप्त करने के स्थान पर इस प्रकार से लक्षणात्मक रोगों के लिए परम्परागत तथा तथाकथित रूप से इलाज करने को चुना जाना भी बहुत ही आम देखने को मिलता है। इस प्रकार मनोविकृति संबंधी रोगों के बड़े पैमाने पर व्याप्ति के बावजूद वृद्ध लोगों में मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता को बहुत ही कम महत्व दिया जाता है।

अवसाद से जीवन की खुशियां नष्ट हो जाती हैं तथा जीवन की गुणवत्ता पर इसका गहन प्रभाव पड़ता है। एक पहलू और भी है जिसका सम्बन्ध देखभाल से जुदा है.अधिकांश परम्परागत समाजों की तरह, भारत में परिवार द्वारा अपने वृद्ध सदस्यों की देखभाल की जाती है। परन्तु , परिवार के ढ़ांचे में परिवर्तनों और सामाजिक संस्थानों द्वारा वृद्धावस्था देखभाल की जिम्मेदारी उठाने की मुहिम से इस सदियों पुरानी व्यवस्था पर संकट की बादल मंडरा रहे हैं. इन बदलती परिस्थितियों में परिवार में वयोवृद्ध व्यक्ति की देखभाल एक महत्वपूर्ण सामाजित मुद्दा बन चुकी है। कमज़ोर तथा शारीरिक रूप से दूसरे पर निर्भर रहने वाले वृद्ध व्यक्ति की दीर्घकालिक देखभाल के परिणामस्वरूप देखभालकर्ता के लिए अनेक शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक और वित्तीय तनाव पैदा होते हैं जिन्हें ‘देखभालकर्ता की परेशानी’ कहा जाता है।

वयोवृद्ध रोगियों के साथ दुर्व्यवहार एक अलग समस्या है. आमतौर पर वयोवृद्ध व्यक्तियों का शोषण उनके घर से लेकर उनके बच्चों के घर, आवासीय देखभाल,नर्सिंग होम और अस्पताल में भी हो सकता है। वयोवृद्ध व्यक्तियों के शोषण का स्वरूप बहुत विस्तृत होता है तथा उसमें शारीरिक शोषण, मनोवैज्ञानिक शोषण, वित्तीय शोषण, उपेक्षा आदि शामिल होते हैं. इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकलने की गलती न हो जाये की बुजुर्गों के साथ अच्छा सलूक होता ही नहीं है. नहीं, ऐसा कतई नहीं है, फिर भी समय कठिन है. हमारे बुजुगों का समय उससे भी कठिन है, यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए जैसा की उक्त चर्चा से शायद बात साफ़ हो गई होगी.

============================================
=============================
=========================

No comments: