बरगद की तरह छांह जो देना नहीं जानें
तौबा करें वो ख़ुद को मसीहा तो न मानें
उठते ही नहीं जिनके क़दम मंज़िलों की ओर
बेहतर है वो चलने के ख़्वाब मन में न पालें
कोहराम मचाने से कोई फायदा नहीं
चुप रहना मुनासिब है कोई माने न माने
पिंजरे में कभी रहना वो जाने तो बताओ
कह दो उन्हें कि वक़्त के पंछी को न पालें
जो धूप में निकले ,न ही बरखा में नहाए
अच्छा है वो घर अपना कहीं और बसा लें
जो ख़ुद किसी के दिल में कभी रह नहीं सकते
वो गैर को अपने किसी सांचे में न ढालें
आओ कि तार ज़िंदगी के छेड़ लें जरा
जी लें इसे और प्यार का नगमा कोई गा लें
तौबा करें वो ख़ुद को मसीहा तो न मानें
उठते ही नहीं जिनके क़दम मंज़िलों की ओर
बेहतर है वो चलने के ख़्वाब मन में न पालें
कोहराम मचाने से कोई फायदा नहीं
चुप रहना मुनासिब है कोई माने न माने
पिंजरे में कभी रहना वो जाने तो बताओ
कह दो उन्हें कि वक़्त के पंछी को न पालें
जो धूप में निकले ,न ही बरखा में नहाए
अच्छा है वो घर अपना कहीं और बसा लें
जो ख़ुद किसी के दिल में कभी रह नहीं सकते
वो गैर को अपने किसी सांचे में न ढालें
आओ कि तार ज़िंदगी के छेड़ लें जरा
जी लें इसे और प्यार का नगमा कोई गा लें
2 comments:
क्या बात है
जो धूप में निकले ,न ही बरखा में नहाए
अच्छा है वो घर अपना कहीं और बसा लें
जैन साहेब
आप की ग़ज़ल पढ़ कर जगजीत सिहं जी की गायी ग़ज़ल का एक शेर याद आ गया :
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.
नायाब शेरों से सजी आप की ग़ज़ल देर तक जेहन में रहने वाली है. ऐसे खूबसूरत कलाम के लिए दिली मुबारकबाद कबूल करें.
नीरज
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