Friday, May 30, 2008

महक वफ़ा की रखो !


रहो ज़मीं पे मगर आसमां का ख्वाब रखो
तुम अपने सोच को हर वक़्त लाज़वाब रखो

खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी
तुम अपने हाथ में किरदार की किताब रखो

उभर रहा है जो सूरज तो धूप निकलेगी
उजाले में रहो मत धुंध का हिसाब रखो

मिलो तो ऐसे कि कोई न भूल पाये तुम्हें
महक वफ़ा की रखो और बेहिसाब रखो

लिबास कोई भी पहनो मगर ये याद रहे
तुम अपने क़द को मगर यूँ न बेहिज़ाब रखो

11 comments:

राकेश जैन said...

Dr. Sahab,

Bahut Khubsurat Nazma...

Rachna Singh said...

लिबास कोई भी पहनो मगर ये याद रहे
तुम अपने क़द को मगर यूँ न बेहिज़ाब रखो
atti sunder

मीनाक्षी said...

bahut khoob....तुम अपने सोच को हर वक़्त लाज़वाब रखो....
aaj ke yug ki maang bhi yahi hai...

mehek said...

behad khubsurat

शायदा said...

किरदार की किताब....वाह।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन!!

राजीव रंजन प्रसाद said...

खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी
तुम अपने हाथ में किरदार की किताब रखो

लिबास कोई भी पहनो मगर ये याद रहे
तुम अपने क़द को मगर यूँ न बेहिज़ाब रखो

हर शेर बेहतरीन है।

***राजीव रंजन प्रसाद

बालकिशन said...

क्या कहूँ?
क्या लिखूं?
शब्द नही मिल रहे.
बेहतरीन!
उम्दा!
लाजवाब!

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आप सब का अंतस्तल से आभार.
स्नेह बनाए रखिये.
=============
चंद्रकुमार

समयचक्र said...

हर शेर बेहतरीन है.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

धन्यवाद महेंद्र जी.
चंद्रकुमार