Saturday, June 21, 2008

ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !


नहीं चाहिए मुझे
किसी और के बगीचे के
फूलों की महक या माला
मुझे तो है
अपने ही बगीचे के
काँटों से प्यार !
तुम ख़ूब नगद ज़िंदगी
अपनी समझ रहे पर
ये कम नहीं कि
ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !
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10 comments:

sanjay patel said...

तुम ख़ूब नक़द ज़िंदगी
अपनी समझ रहे पर
ये कम नहीं कि
ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !

डाक साब;
एक विलक्षण आत्म-सम्मान की बात कही आपने.
१६ शब्दों में ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बयाँ कर दिया आपने.

jasvir saurana said...

अपने ही बगीचे के
काँटों से है प्यार !
vha bhut hi gahari rachana.badhai ho.likhte rhe.

रंजू भाटिया said...

तुम ख़ूब नगद ज़िंदगी
अपनी समझ रहे पर
ये कम नहीं कि
ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !

बहुत ही गहरी बात कह देते हैं आप चंद लफ्जों में

शायदा said...

सही कहा-अपने ही बगीचे के कांटों से प्‍यार होना चाहिए। पराए फूलों का महत्‍व है भी क्‍या....बढि़या लिखा।

अमिताभ मीत said...

संजय भाई से पूरी सहमति. एकदम कमाल है भाई. वाह !

Alpana Verma said...

Sir,bahut hi gahari baat kah di hai kuchh panktiyon mein.

Udan Tashtari said...

तुम ख़ूब नगद ज़िंदगी
अपनी समझ रहे पर
ये कम नहीं कि
ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !


--ये बात हुई न!! बहुत खूब.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आप सब का
अंतस्तल से आभार.
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चन्द्रकुमार

Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत ही खूबसूरत लफ़्ज़ हैं बधाई स्वीकारें...

Dr. Chandra Kumar Jain said...

शुक्रिया आपका
डाक्टर साहिबा.
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डा.चन्द्रकुमार जैन