Monday, June 23, 2008

पावस की सुरभि बिछा दूँ ...


तुम अगर रुदन को छोड़ तनिक मुस्का दो
मैं जीवन में पावस की सुरभि बिछा दूँ.

क्या सिंधु सुखा सकता है भानु तपन से ?
तुम चढ़े रहो शैतानों की छाती पर
क्या मृत्यु रोक पाई जीवन की धारा ?
तुम अड़े रहो बलिदानों की माटी पर
तुम वीणा के तारों पर हाथ घुमा दो
मैं कर्म-क्षेत्र में गीत भैरवी गा दूँ.

जब करुणा का सागर हिलोरें लेता है
कोई नौका तब नहीं डुबोयी जाती
मत रोओं, सहो वेदना अभी समय है
अनमोल नई गरिमा तब जोड़ी जाती
तुम बाँहों में अपनी पतवार थमा दो
मैं मझधारों से तट पर तुम्हें बिठा दूँ.

तुम अगर रुदन को छोड़ तनिक मुस्का दो
मैं जीवन में पावस की सुरभि बिछा दूँ.
===========================

6 comments:

Alpana Verma said...

जब करुणा का सागर हिलोरें लेता है
कोई नौका तब नहीं डुबोयी जाती
मत रोओं, सहो वेदना अभी समय है
अनमोल नई गरिमा तब जोड़ी जाती
तुम बाँहों में अपनी पतवार थमा दो
मैं मंझधारों से तट पर तुम्हें बिठा दूँ.

bahut hi achchee kavita--himmat badhaati hui...saahas dilati hui..

saath diya chitr' bhi mohak hai..

रंजू भाटिया said...

तुम बाँहों में अपनी पतवार थमा दो
मैं मंझधारों से तट पर तुम्हें बिठा दूँ.

तुम अगर रुदन को छोड़ जरा मुस्का दो
मैं जीवन में पावस की सुरभि बिछा दूँ.

बहुत खूब कहा सुबह सुबह इसको पढ़ कर बहुत ही दिल को अच्छा लगा

Shiv said...

तुम बाँहों में अपनी पतवार थमा दो
मैं मंझधारों से तट पर तुम्हें बिठा दूँ

बहुत सुंदर भाव लिए अद्भुत रचना. बहुत अच्छी लगी ये कविता.

mehek said...

wah bahut man bhavak,sundar,samajh nahi tariff kaise karein,bahut badhai.

Udan Tashtari said...

अद्भुत रचना-बहुत बढ़िया.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अल्पना जी
रंजू जी
शिवकुमार जी
महक जी
समीर साहब
आपको हार्दिक धन्यवाद.
स्नेह पूर्व शुभ भावों के लिए.
======================
डा.चन्द्रकुमार जैन