उठ रही है आस्था की अर्थी
वो मना रहे हैं आज बरसी
पुल बना दिया गया नदी पर
बूँद के लिए नदी है तरसी
नीर भरी कल्पना-बदरिया
विवश हुई 'औ' जहाँ भी बरसी
उग गए वादों के चंद पौधे
चाह लगी धरती की पर-सी
जंगलों में थीं मिलीं जो किरणें
छुप गईं देखो कहीं लहर-सी
गज़ब है ये दौर देखिए तो
ज़िंदगी है काग़जों के घर-सी
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Wednesday, September 17, 2008
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8 comments:
क्या बात कही डाक्साब
Jee karta hai ki aapki kalam chum loon. Dr saheb bahut badhia likhte hain aap.Aapki har post padhta hun main.
नीर भरी कल्पना-बदरिया
विवश हुई 'औ' जहाँ भी बरसी
bhut sundar jari rhe.
गज़ब है ये दौर देखिए तो
ज़िंदगी है काग़जों के घर-सी
-बहुत उम्दा!!
उग गए वादों के चंद पौधे
चाह लगी धरती की पर-सी
bahut behtareen....
सही बात है !
शुक्रिया सम्मान्य मित्रों
आप सब का.
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चन्द्रकुमार
गज़ब है ये दौर देखिए तो
ज़िंदगी है काग़जों के घर-सी
bahut khub
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