Friday, January 9, 2009

सुरभि कब रुक सकी...?

न जाने छेद कितने देह पर

उभरे मगर देखो

सुरीली तान में वह बाँसुरी

हर बार गाती है

सुरभि कब रुक सकी बोलो

हवा कब ठहरना जाने

कली काँटों में रहकर भी

हमेशा मुस्कराती है

जिसे हम दर्द का पर्वत

दुखों की बाढ़ कहते हैं

वही तो ज़िंदगी है

बंदगी है और साथी है...!

===================

5 comments:

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत सुन्दर!

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा सकारात्मक रचना!! वाह!

Arvind Mishra said...

बहुत बढियां ,अन्तिम लायीं को थोड़ा और मीटर में लायें !

विधुल्लता said...

चन्द्र कुमार जी कविता के बोल सुंदर हैं ..बांसुरी, नाम सुनते और बोलते ही मन मैं एक भाव उभर आता है ..न जाने छेद कितने देह पर
उभरे मगर देखो
सुरीली तान में वह बाँसुरी
हर बार गाती है...badhai

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर भाव लिये है आप की कविता.
धन्यवाद