मंज़र अक़्सर मिलते हैं पर
सूने घर में रोने वाले
मेरे सपनों में आते हैं
अपनी ही दुनिया में खोए
खुदगर्ज़ मिले अनगिन लेकिन
खो बैठे जो अपनी दुनिया
वो मुझको रोज़ बुलाते हैं
इस पार रुकूँ कैसे मैं मन !
उस पार जो जीवन ठहरा है
मैं उनकी गति बन जाऊँ जो
थककर पथ पर रुक जाते हैं...!
======================
10 comments:
'मैं उनकी गति बन जाऊं …'
बहुत सुन्दर और प्रेरक।
सुंदर विचार, सुंदर कविता!
hriday tal ko chhoone wala likha aapne.
अच्छे विचारों युक्त अच्छी कविता।
bhav gahre hai
well, this is nice post
बहुत सुन्दर.
बहुत बढ़िया है भाई.
आप की कलम से निकली एक और असाधारण रचना...वाह...
नीरज
वाह कया भाव है, बहुत सुंदर.
धन्यवाद
bahut bhavbhini prastuti
Post a Comment