Tuesday, February 3, 2009

तब तक सजग मुझे रहना है...!


जितना चल सकता हूँ मैं

उतने क़दमों तक हक मेरा है

जितना जल सकता हूँ बस

उतनी किरणों तक ही डेरा है

जब तक मात न नींदों की हो

तब तक सजग मुझे रहना है

रातों से क्यों गिला मुझे हो

कब सुबहों ने मुँह फेरा है ?
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5 comments:

Kaushal Kishore Shukla said...

आपने अच्छा लिखा है। कभी मेरे ब्लाग को भी पढ़ने की गुजारिश है। आप जैसे विद्वानों की टिप्पणी भी अपेक्षित होगी।

अमिताभ मीत said...

सही है !!

ऎसी भी कोई रात है जिसकी सहर न हो ?

"अर्श" said...

जैन साहब नमस्कार,
बहोत ही बढ़िया कविता लिखी है आपने बहोत ही खुबसूरत भाव लिए है प्रोत्साहित करती हुई... ढेरो बधाई कुबूल करें ....
अपनी नई पे आपकी राय जानना चाहूँगा ....

आपका
अर्श

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत ख़ूब!'वो सुबह कभी तो आयेगी'

रंजना said...

Waah !

Aapki aasha aur urja se bhari rachnayen sachmuch rakt me navjeevan ka sanchaar kar deti hai..

Bahut bhut sundar...sadhuwaad.