Thursday, April 2, 2009

तट को छोड़ना पड़ेगा...!

श्रम करोगे तो तिल से तेल निकाल पाओगे
हिम्मत होगी तो कष्टों को झेल पाओगे
कर्मों के खेल का मैदान है यह ज़िंदगी
जीवन के मैदान में उतरकर ही खेल पाओगे
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मोती को पाना है तो तट को छोड़ना पड़ेगा
जल में उतर ताल से निज को जोड़ना होगा
मात्र ज्ञान से ही जीवन की गहराई नहीं दिखती
ध्यान की ओर भी स्वयं को मोड़ना होगा
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अभिमान टिकता नहीं, मिटते देर नहीं लगती
नमक के पुतले को गलते, देर नहीं लगती
घमंड तो लंका के राजा रावण का भी नहीं रहा
सोने की लंका को भी जलते देर नहीं लगती
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मुनि मणिप्रभ सागर जी के मुक्तक - 'प्रतिध्वनि' से.

6 comments:

Udan Tashtari said...

प्रेरणादायक!!

mehek said...

मोती को पाना है तो तट को छोड़ना पड़ेगा
जल में उतर ताल से निज को जोड़ना होगा
मात्र ज्ञान से ही जीवन की गहराई नहीं दिखती
ध्यान की ओर भी स्वयं को मोड़ना होगा
waah bahut khubsurat

रंजू भाटिया said...

सुन्दर प्रेरणा देती है आपकीयह रचना

संगीता पुरी said...

आपकी रचनाओं का जवाब नहीं !!!

Alpana Verma said...

अभिमान टिकता नहीं, मिटते देर नहीं लगती
नमक के पुतले को गलते, देर नहीं लगती
घमंड तो लंका के राजा रावण का भी नहीं रहा
सोने की लंका को भी जलते देर नहीं लगती
---मुनि मणिप्रभ सागर जी के लेखन की जितनी प्रशंसा की जाये कम है..बेहद प्रेरणादायक और ओज भरने वाले मुक्तक हैं.
आप ने इन्हें पढ़वाया.धन्यवाद.

Chandresh kumar sahu said...

adbhut prernadayi...