श्रम करोगे तो तिल से तेल निकाल पाओगे
हिम्मत होगी तो कष्टों को झेल पाओगे
कर्मों के खेल का मैदान है यह ज़िंदगी
जीवन के मैदान में उतरकर ही खेल पाओगे
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मोती को पाना है तो तट को छोड़ना पड़ेगा
जल में उतर ताल से निज को जोड़ना होगा
मात्र ज्ञान से ही जीवन की गहराई नहीं दिखती
ध्यान की ओर भी स्वयं को मोड़ना होगा
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अभिमान टिकता नहीं, मिटते देर नहीं लगती
नमक के पुतले को गलते, देर नहीं लगती
घमंड तो लंका के राजा रावण का भी नहीं रहा
सोने की लंका को भी जलते देर नहीं लगती
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मुनि मणिप्रभ सागर जी के मुक्तक - 'प्रतिध्वनि' से.
Thursday, April 2, 2009
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6 comments:
प्रेरणादायक!!
मोती को पाना है तो तट को छोड़ना पड़ेगा
जल में उतर ताल से निज को जोड़ना होगा
मात्र ज्ञान से ही जीवन की गहराई नहीं दिखती
ध्यान की ओर भी स्वयं को मोड़ना होगा
waah bahut khubsurat
सुन्दर प्रेरणा देती है आपकीयह रचना
आपकी रचनाओं का जवाब नहीं !!!
अभिमान टिकता नहीं, मिटते देर नहीं लगती
नमक के पुतले को गलते, देर नहीं लगती
घमंड तो लंका के राजा रावण का भी नहीं रहा
सोने की लंका को भी जलते देर नहीं लगती
---मुनि मणिप्रभ सागर जी के लेखन की जितनी प्रशंसा की जाये कम है..बेहद प्रेरणादायक और ओज भरने वाले मुक्तक हैं.
आप ने इन्हें पढ़वाया.धन्यवाद.
adbhut prernadayi...
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