रोया हूँ मैं भी किताब पढ़कर
पर अब याद नहीं कौन-सी
शायद वह कोई वृत्तान्त था
पात्र जिसके अनेक बनते थे
चारों तरफ़ से
मंडराते हुए आते थे
पढ़ता जाता और
रोता जाता था मैं
क्षण भर में सहसा पहचाना
यह पढ़ता कुछ और हूँ
रोता कुछ और हूँ !
लेकिन मैंने जो पढ़ा था
उसे नहीं रोया था
पढ़ने ने तो मुझमें
रोने का बल दिया
मैंने दुःख पाया था बाहर
किताब के जीवन से
पढ़ता जाता और रोता जाता था मैं
जो पढ़ता हूँ उस पर मैं नहीं रोता हूँ
बाहर किताब के जीवन से
पाता हूँ रोने का कारण मैं
पर किताब रोना सम्भव बनाती है।
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श्री रघुवीर सहाय की कविता कृतज्ञता पूर्वक.
Wednesday, June 10, 2009
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5 comments:
मार्मिक। शुक्रिया।
बहुत खुब
"पर किताब रोना सम्भव बनाती है।"
वाह अद्भुत पंक्ति...बहुत आभार जैन साहेब इस कविता को पढ़वाने का...
नीरज
अच्छी कविता ढूंढकर लाये हो भाई.धन्यवाद
रघुवीर सहाय की एक पुस्तक मैंने भी अभी हाल में ली है
संसद से सड़क तक'
कविता कोष पर यह धूमिल की रचना बताती है
खैर ... जो भी हो रचना बहुत बौधिक है कारन यह भी रहा क्योंकि वो कई अख़बारों के संपादक रहे... बहुत जागरूकता थी उनमें... आपका शुक्रिया...
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