नहीं ज़हान तो फ़िर बागबान किसके लिए
मैं ज़िंदगी की लिखूं दास्तान किसके लिए
मैं पूछता रहा हर एक बंद खिड़की से
खड़ा हुआ है ये खाली मकान किसके लिए
गरीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए
हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगों
मैं सोचता हूँ कि खोलूँ दूकान किसके लिए
ये राज़ जा के बताऊंगा मैं परिंदों को
बन रहा है वो तीरों-कमान किसके लिए
ऐ चश्मदीद गवाह बस यही बता मुझको
बदल रहा है तू अपना बयान किसके लिए ===============================
ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़ल देशबंधु से साभार प्रस्तुत
Wednesday, September 2, 2009
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12 comments:
गरीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए
हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगों
मैं सोचता हूँ कि खोलूँ दूकान किसके लि
लाजवाब शेर हैं पूरी गज़ल ही काबिले तारीफ है मगर ये दो शे मन को छू गये बधाई
मैं पूछता रहा हर एक बंद खिड़की से
खड़ा हुआ है ये खाली मकान किसके लिए
गरीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए
बहुत अच्छा लिखा है. स्तरीय ग़ज़ल.
ऐ चश्मदीद गवाह बस यही बता मुझको
बदल रहा है तू अपना बयान किसके लिए
Bahut Sundar !!!
ये राज़ जा के बताऊंगा मैं परिंदों को
बन रहा है वो तीरों-कमान किसके लिए
... वाह कितने बात छुपे है
एक उच्च स्तर की गज़ल...........बहुत खुब
हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगों
मैं सोचता हूँ कि खोलूँ दूकान किसके लिए..waah !
बहुत खूब.....
हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगों
मैं सोचता हूँ कि खोलूँ दूकान किसके लिए
वाह वाह बहुत ही लाजबाव.
धन्यवाद
sunder ghazal...
Waah ! Waah ! Waah ! Lajawaab....
seedhe man me utar gayin aapki ye panktiyan...waah !!
क्या बात है जैन साहब. बेहतरीन ग़ज़ल ... पढ़वाने का शुक्रिया.
बेहतरीन गज़ल है भाई ! आभार ! -शरद कोकास,दुर्ग छ.ग.
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