Tuesday, September 15, 2009

दिनचर्या.


मेरे कैलेंडर की
चिड़िया का
एक पंख
रोजाना टूट जाता है
और मैं
उसे सहेज कर
डायरी में छुपा लेता हूँ
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सुरेश ऋतुपर्ण

8 comments:

Udan Tashtari said...

कभी डायरी पलटा कर भी दिखाईये..पुराने पन्ने!! उम्दा रचना!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुरेश ऋतुपर्ण जी को बधाई।
सुन्दर कविता को ब्लॉग पर प्रकाशित
करने के लिए आपका आभार!

ओम आर्य said...

सुरेश ऋतुपर्ण जी को बधाई।

अविनाश वाचस्पति said...

और डायरी
का
बना दिया है ब्‍लॉग
पंख की बन रही है
जो आग
उससे जलेंगी समस्‍याएं
तभी पड़ सकता है चैन
क्‍योंकि सही कहा है मैंने
मित्र डॉ. चन्‍द्रकुमार जैन।

mehek said...

waah beharin rachana,kitne hi pankh jama ho gaye honge,yaadon mein ghul gaye honge.

Mishra Pankaj said...

सुरेश ऋतुपर्ण जी को बधाई।
सुन्दर कविता को ब्लॉग पर प्रकाशित
करने के लिए आपका आभार!

राज भाटिय़ा said...

वाह बहुत सुंदर... "यह चि्डियां का पंख" जबाब नही जी.
धन्यवाद

रंजना said...

वाह वाह वाह ......... क्या बात कही.....वाह....

सचमुच एक एक कर सभी पंख झड़ जाया करते हैं....