उँगलियों से यूँ न सब उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो
ज़िंदगी क्या है ख़ुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो
दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो
शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फ़कीरों को खाना खिलाया करो
अपने सीने में दो गज ज़मीं बांधकर
आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो
चाँद-सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो
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राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल साभार.
6 comments:
चाँद-सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो
-नहीं लगाते, खुद ही आकर लग जाते हैं, क्या करें.
-बेहतरीन रचना!
अपने सीने में दो गज ज़मीं बांधकर
आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो
चाँद-सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो
Wah ! bahut khoob.
"चाँद-सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो"
डॉ. चन्द्रकुमार जैन जी!
राहत इन्दौरी साहब की खूबसूरत गज़ल
पेश करने के लिए धन्यवाद!
खर्च करने से पहले कमाया करो
ज़िंदगी क्या है ख़ुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो
शुक्रिया! इन्दौरी जी और आपको भी...
उँगलियों से यूँ न सब उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो
सलाम जी बहुत सुंदर
धन्यवाद
वा भई वाह ! राहत इन्दोरी साहब की एक गज़ल है जिसका शेर है ..उठाओ चाबुक तो झुक कर सलाम करते है वह कहीं से मिले तो यहाँ लगाओ -शरद
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