समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
जहाज ख़ुद नहीं चलते ख़ुदा चलाता है
ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आए
वो हम नहीं हैं जिन्हें रास्ता चलाता है
वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाज़ों में
मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है
ये लोग पाँव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है
हम अपने बूढ़े चिरागों पे ख़ूब इतराए
और उसको भूल गए जो हवा चलाता है
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राहत इन्दौरी साहब की एक और ग़ज़ल साभार
4 comments:
अच्छा लगा पढ़कर.
सुंदर रचना !!
waah ...bahut sundar...prastuti hetu aabhar.
बहुत अच्छा लगा ,
धन्यवाद
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