चांदी-सी रातें, दिल सोने,
फिर भी अपने-अपने रोने।
घर में रहे विदेशी होकर,
सुख-दुःख की खा-खाकर ठोकर।
हो न सके हम नमक ठीक से,
निगल रहे हैं ग्रास अलोने।
झिलमिल कोई सुबह न कौंधी,
सांझ पड़े गहराई रतौंधी।
शादी हुई उधारी वाली,
हो न सके फिर अपने गौने।
अपनी रातें रहीं हुआतीं,
बिला गए दिन संगी-साथी।
चांदी खोटी,खोटे सोने,
आदमजात हुए क्यों बौने ?
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नईम साहब की रचना साभार प्रस्तुत.
Wednesday, March 31, 2010
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3 comments:
शुक्रिया जैन साहब नईम साहब की रचना पढवाने का.
आभार,, अच्छा लगा नईम साहेब को पढ़कर!
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
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