समय की वर्तुल अंगूठी से पृथक
एक विस्तृत प्रतिज्ञा हूँ मैं
ओ, परित्यक्ता पृथ्वी
भविष्य की कोख में
मैं ही भरत हूँ सुबकियाँ लेता
मेरी ही नसों में
अतीत की
सम्पूर्ण विस्मृत असंपादित
प्रतिज्ञाओं का
लहू उफनता है।
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गुरुदेव कश्यप की रचना साभार.
Sunday, April 11, 2010
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3 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
अति सुन्दर ! बहुत अच्छा लगा पढ़कर !
अति सुन्दर ! बहुत अच्छा लगा पढ़कर
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