मित्र -मुखौटा पहन शत्रुता घूम रही है गली -गली
माली से है त्रस्त यहाँ उपवन की देखो कली -कली
बड़े बड़े जलसों बातें बड़ी -बड़ी होतीं हैं पर
भूखी प्यासी जनता को क्यों कोई राहत नहीं मिली
शोर बहुत है अख़बारों में घर -घर उजियाला होगा
लेकिन होरी की कुटिया को कभी रोशनी नहीं मिली
जान रहा है वो सच्चाई और दुनिया की गहराई
वो बेचैन रहा है उसको नींद चैन की नहीं मिली
हो सकता है बात चन्द्र की लगे बुरी लेकिन सच है
खोटे सिक्के की दुनिया में खरी -खरी कब कहाँ चली
3 comments:
अच्छी कविता ।
खोटे सिक्के की दुनिया में खरी -खरी कब कहाँ चली
चली है साहब ....खरी खरी की ही चली है तभी आप और हम खरी खरी कह पा रहे हैं। ..आशा पर आकाश थमा है....
लेकिन होरी की कुटिया को कभी रोशनी नहीं मिली
जान रहा है वो सच्चाई और दुनिया की गहराई
सटीक !!
सटीक है पर वडनेरकर जी की बात से सौ फीसदी सहमत!
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