मीठे सपनों को
जीते पलों के बीच
क्यों घुल जाती है
ये कडुवाहट अजीब-सी !
आख़िर क्या चाहते हैं वो लोग
जिन्हें परवाह नहीं
किसी की चाहत की,
आख़िर क्या हासिल होगा उन्हें
बेगुनाहों का हासिल छीनकर !
इतने तंग रास्ते से
ज़ंग जीतने की
कैसी जुगत है यह कि
नाहक आक्रमण जारी है
और जो ख़ामोश हैं
अपराध उनका भारी है !
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Sunday, December 21, 2008
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6 comments:
खामोशी सच में भारी अपराध है |
अच्छा व्यंग्य है।
और जो ख़ामोश हैं
अपराध उनका भारी है
सच्ची बात...हमेशा की तरह...लाजवाब रचना...
नीरज
बहुत बड़ी बात कह दी डाक्साब आपने। अब खामोश रहने मे डर लगेगा।
सही है साहब. अपराध हमेशा उन्हीं का रहा है, जो बोल नहीं पाते ...
बहुत भावभरी अभिव्यक्ति।
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