Wednesday, April 30, 2008

बँट गई इंसानियत !


इंसानों की दुनिया में
और कुछ बँटा न बँटा
आबाद न रह सकी
इंसानियत !
सभ्यता ने बाँट दिया
इन्सान को -
मुल्कों में
संस्कृतियों में
मज़हबों में
सम्प्रदायों में
शिविरों में
कुनबों में
यहाँ तक गली -मोहल्लों
जाति-उपजाति
आग्रहों-पूर्वाग्रहों में !
सिर्फ़ देशी-विदेशी उत्पाद नहीं
भाव बिके,विचार बिके
सहयोग बिका
सेवा बिकी
यहाँ तक स्वप्न भी तो बिकने लगे !
दुनिया एक बाज़ार ही बन गई
मन-मस्तिष्क-ह्रदय
सब कुछ बँट गया,बिक गया !
नई सदी !
हम समझ गए
अब बँटवारा
सिर्फ़ भौगोलिक तथ्य नहीं
मिट्टी,नदी,पर्वत के पार भी
बँट सकती है ये धरती
सच है ....... जो काम
कर नहीं सकती प्रकृति
वह मानव कर
सकता है !
जन्म चाहे उसके हाथ न हो
अपने हाथों मर तो सकता है !!

Monday, April 28, 2008

आँखों से बड़ा हमदर्द नहीं !


आँखों से बड़ा हमदर्द नहीं
हमने दुनिया में देखा है
आँखों-आँखों में हमने तो
पाया जीवन का लेखा है
हम दौड़-भाग में भूल गए
हर आँख का आँसू मोती है
जब एक आँख रोती है तब
दूजी भी दुःख में रोती है !

दो मुक्तक .


हर सितारे पर न ये आँखें अटकती हैं
जिसको चाहो उससे हर दूरी खटकती है
रात-दिन उस प्राण प्रिय के दरस पाने को
पुतलियों की नाव सागर में भटकती है.
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रात यह बेशक बहुत काली-कलूटी है
चाँद को पर प्रेयसी लगती अनूठी है
ह्रदय को स्वीकार हो बस है वही सुंदर
और सब मूल्यांकनों की बात झूठी है .

Saturday, April 26, 2008

उजाले से नाता जोड़ो....


क्या कहा ?
अँधेरा हो गया है !
भ्रमान्ध हो तुम
दरअसल सबेरा हो गया है
जब रोशनी
विश्राम करने
कहीं दूर चली जाती है
तब अंधकार को कुछ जगह मिल जाती है
मतलब ये तो नहीं कि रोशनी की बुनियाद हिल जाती है !
वास्तव में अंधकार की कोई अलग सत्ता नहीं है
लगता है वहाँ चिराग़ अलबत्ता नहीं है
सुनो ! मत पूछो अँधेरा क्यों है ?
बल्कि सोचो कि उजाला क्यों नहीं है ?
अंधेरे पर सवाल छोड़ो उजाले से नाता जोड़ो.
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Thursday, April 24, 2008

मेरी पसंद ....... धूमिल.


सुदामा पाण्डेय धूमिल की कविता की दुनिया
समकालीन साहित्य-बोध का जीवंत दस्तावेज़ है
वक्त के साथ-साथ जब कविता
इंसान की ज़बान बनकर अधिक वेग से उभरेगी,
मेरा यकीन है कि तब लोग समझ पाएँगे कि
धूमिल अपने समय का ही नहीं,
हिन्दी का सबसे अलग और संधर्षशील कवि है.
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धूमिल के प्रकाशित काव्य-संग्रह हैं -
संसद से सड़क तक (१९७२)
कल सुनना मुझे (१९७७),
धूमिल की कविताएँ (१९८३)
सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र (१९८३)
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लीजिए पेश हैं धूमिल की चंद पंक्तियाँ जो
कवि के तेज की स्वयं गवाह हैं-
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एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है
और न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ ये तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है !

Wednesday, April 23, 2008

शुद्ध कविता की खोज...दिनकर जी !


मित्रों !
२४ अप्रैल।
अंगार और हुंकार के राष्ट्र-कवि
रामधारीसिंह दिनकर जी
( २३.९.१९०८-२४.४.१९७४)
का स्मरण-दिवस है .
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उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -रेणुका, हुंकार,रसवंती, कुरुक्षेत्र,
उर्वशी, सीपी और शंख, नए सुभाषित, अर्द्ध नारीश्वर,
संस्कृति के चार अध्याय, मिट्टी की ओर,
काव्य की भूमिका, शुद्ध कविता की खोज आदि.
सम्मान - पद्मभूषण -१९५९,
साहित्य अकादमी सम्मान -१९५९,
ज्ञानपीठ -१९७२
राज्य सभा सदस्य -१९५२ से १९६४ तक.
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दिनकर जी के अप्रतिम योगदान को
नमन करते हुए प्रस्तुत हैं
जीवन को कर्तव्य-बोध का पथ सुझाती
उनकी ये चार अमर पंक्तियाँ -
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प्रकृति नहीं डरकर झुकती है ,कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से, श्रम जल से.
कर्म-भूमि है यही महीतल,जब तक नर की काया
तब तक जीवन के अणु-अणु में,है कर्तव्य समाया.
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Sunday, April 20, 2008

फ़ासला नहीं होता .


इस तरह फ़ासला नहीं होता
मैं जो तुमसे मिला नहीं होता

ज़ुल्म की हद अगर नहीं होती
सब्र भी खोखला नहीं होता

पीठ में घोंपते न तुम खंजर
क़त्ल का मामला नहीं होता

आँखों-आँखों में बात कर लेते
रंज़ या फिर गिला नहीं होता

ख़त भी गुमनाम लिखा है तुमने
क्या मैं तुमसे मिला नहीं होता

प्यार को वो अगर समझ जाता
मीत से कुछ गिला नहीं होता

देखते तो मुझे सदा देकर
एक क़दम मैं हिला नहीं होता

Friday, April 18, 2008

चाहत का चेहरा .


काश !
एक पल ही सही
बन जाएँ मेरी आँखें
एक ऐसे आइने की तरह
कि जो चाहे
देख सके इसमें
अपना सबसे सुंदर और
मनचाहा अक्स !
कि जी सके
अपनी ही चाहत का चेहरा
हर शख्स !
मेरी आँखों में
पल भर ही सही
काश........!!!

Wednesday, April 16, 2008

छोटी सी बात पर !


चाहता हूँ लिखूँ एक गीत
छोटी सी बात पर !
सुना है बड़ी -बड़ी बातों पर
रचे गए हैं बड़े-बड़े गीत
पर सोचता हूँ
छोटी बात
क्या वास्तव में
छोटी होती है ?
सिर्फ़ खान-पान
और मद्यपान पर
क्यों लिखूं मैं गीत ?
क्या यही है
कलम के संसार की रीत ?
जब बिक रही हो ज़िंदगी
रोटी के दो टुकड़ों की खातिर
तब शाही व्यंजनों की व्यंजना
कलमकार का धर्म नहीं है
सिर्फ़ अभिधा से इन पर
किया जा सकता है वार
इसलिए छोटी-छोटी बातों पर
गीत लिखूँगा मैं हर बार !

Tuesday, April 15, 2008

सच्चा संत.


संत किसी अंत से नहीं डरता
कठिनाइयाँ उसकी पगडंडियाँ हैं
कष्ट उसे पथ सुझाते हैं
वन-उपवन का सौन्दर्य
उसे रिझाता नहीं
स्वर्ग का सुख-वैभव भी
उसे भाता नहीं
संत तो हिमगिरि के
गर्भ से उत्पन्न होकर
सिंधु-पथ गामी बनने में ही
जीवन की सार्थकता मानता है
सिंधु के समान हो जाना ठानता है
जो जनता है कि
आत्मा की विभूति अनंत है
वही सच्चे अर्थों में संत है !

Monday, April 14, 2008

किनारे छूट जाते हैं !


सहारों पर न तुम ठहरो सहारे टूट जाते हैं ,
न किस्मत का भरोसा है सितारे रूठ जाते हैं !
किनारे पर पहुँचकर भी न सोचो पार जा पहुँचे,
जोश लहरों को गर आया किनारे छूट जाते हैं !!

Sunday, April 13, 2008

कभी रोशनी नहीं मिली !


मित्र -मुखौटा पहन शत्रुता घूम रही है गली -गली

माली से है त्रस्त यहाँ उपवन की देखो कली -कली

बड़े बड़े जलसों बातें बड़ी -बड़ी होतीं हैं पर

भूखी प्यासी जनता को क्यों कोई राहत नहीं मिली

शोर बहुत है अख़बारों में घर -घर उजियाला होगा

लेकिन होरी की कुटिया को कभी रोशनी नहीं मिली

जान रहा है वो सच्चाई और दुनिया की गहराई

वो बेचैन रहा है उसको नींद चैन की नहीं मिली

हो सकता है बात चन्द्र की लगे बुरी लेकिन सच है

खोटे सिक्के की दुनिया में खरी -खरी कब कहाँ चली





Saturday, April 12, 2008

दो मुक्तक.


बार कितनी प्रियजनों का साथ छूटा है
कल्पना का कलश कितनी बार फूटा है
हाथ में आई सुधा भी छीन ली जग ने
पर अटल विश्वास का धागा न टूटा है
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तिमिर घिरा है सघन व्यथा का पार नहीं है
किंतु शिथिल हो मेरे मन ने मानी हार नहीं है
प्रीत प्रगति के साथ अचंचल मेरी सदा रही है
तुम कितना भी रोको मेरा थमता प्यार नहीं है

Thursday, April 10, 2008

ख़ुद को मसीहा तो न मानें !!!


बरगद की तरह छांह जो देना नहीं जानें
तौबा करें वो ख़ुद को मसीहा तो न मानें

उठते ही नहीं जिनके क़दम मंज़िलों की ओर
बेहतर है वो चलने के ख़्वाब मन में न पालें

कोहराम मचाने से कोई फायदा नहीं
चुप रहना मुनासिब है कोई माने न माने

पिंजरे में कभी रहना वो जाने तो बताओ
कह दो उन्हें कि वक़्त के पंछी को न पालें

जो धूप में निकले ,न ही बरखा में नहाए
अच्छा है वो घर अपना कहीं और बसा लें

जो ख़ुद किसी के दिल में कभी रह नहीं सकते
वो गैर को अपने किसी सांचे में न ढालें

आओ कि तार ज़िंदगी के छेड़ लें जरा
जी लें इसे और प्यार का नगमा कोई गा लें

Wednesday, April 9, 2008

किसे घटाएँ !.....किसको जोड़ें !!

किसे घटाएँ,किसको जोड़ें

कैसे दुनिया का रुख मोड़ें

जब चलने में हर्ज़ यहाँ है

तुम्हीं बताओ कैसे दौड़े

किसे ले चलें साथ सफर में

और बताओ किसको छोड़ें

धारा के विपरीत खड़े हैं

क्यों हम धाराओं को मोड़ें

मंजिल एक दिन मिल जायेगी

मगर शिकायत करना छोड़ें

Tuesday, April 8, 2008

ग़ज़ल हो गई ....!

आँखें हुईं सजल कि ग़ज़ल हो गई समझो

आहें हुईं विरल कि ग़ज़ल हो गई समझो

सुनकर करुण पुकार मदद के लिए बढ़ीं

बाहें हुईं सबल कि ग़ज़ल हो गई समझो

Monday, April 7, 2008

दौलत की बात मत करना ......!

तुम ऐसे दौर में शोहरत की बात मत करना
नमक के पानी में शरबत की बात मत करना

ख़याल अपने ही किरदार का अगर आए
तो इस ज़माने में इज्ज़त की बात मत करना

वफ़ा की राह में चलना अगर गवारा हो
ज़माने भर की शिकायत की बात मत करना

किसी के वास्ते सब कुछ अगर लुटाना हो
तो भूल कर कभी शोहरत की बात मत करना

नज़रिया चाहे किसी का हो अपनी नज़रों से
जो चाहो देखना तोहमत की बात मत करना

जो चल सको तो चलो नेकियों की ज़ानिब तुम
ये राह प्यार की दौलत की बात मत करना

जो कर सको तो करो बन पड़े भला जो भी
भलाई छोड़ कर ज़न्नत की बात मत करना

सोचिए ज़नाब !

कितना कठिन होना है सरल सोचिए ज़नाब !
कितना कठिन होना है तरल सोचिए ज़नाब !!
बेशक अनेक हल हैं समस्या के हर मगर !
कितना कठिन है एक पहल सोचिए ज़नाब !!

समय के पाँव थमते नहीं .

रोओं मत, रात गुजरेगी प्रभात होगा
धैर्य रखो ,शांत सब झंझावात होगा
समय को समय पर गर समझ पाओ
आज दुःख तो कल सुख का साथ होगा

Sunday, April 6, 2008

हो जाते हैं क्यों लोग पराए !

आँसू किसी गरीब के पलकों से उठाए
वो शख्स मेरे साथ चले शौक से आए

जिसने किसी के वास्ते मांगी नहीं दुआ
मुमकिन नहीं वो मेरा कभी साथ निभाए

होंठों पे जिनके गीत थे अब खो गए कहाँ
लय उनकी ज़िंदगी की कोई फिर से मिलाए

जलना है तो यूं जल की उजाला हो प्यार का
जलता हुआ दीपक ये सबक सब को सिखाए

कितने हैं ऐसे लोग जिन्हें ये नहीं मालूम
मुँह फेर के हो जाते हैं क्यों लोग पराए

जो फूल थे काँटों का असर उनमें आ गया
क्या हो गया इन्सां को कोई ये तो बताए

जो कारवां के साथ शरीके सफर न थे
मंजिल पे जो पहुँचा तो वही सामने आए

Saturday, April 5, 2008

वेतन पहले,वतन बाद में !

नई सदी है सिर पर चोटी कहाँ मिलेगी ?
नई सदी है कटि पर धोती कहाँ मिलेगी ?
वेतन पहले, वतन बाद में जब आता हो
तब बोलो मेहनत की रोटी कहाँ मिलेगी ?

Friday, April 4, 2008

जीत है ये जिंदगी

छंद में गर जी सको तो गीत है ये ज़िंदगी,
हो अगर स्वच्छंद तो विपरीत है ये ज़िंदगी.
सुन सको गर मौन को संगीत है ये जिंदगी,
हार में भी हँस सको तो जीत है ये जिंदगी.

जिन्दगी हमने गुजारी शान से .

बच गए खुदगर्ज़ लोगों के किसी एहसान से
चार दिन की जिन्दगी हमने गुजारी शान से

अक्लमन्दों में रहो तो अक्लमन्दों की तरह
और नादानों में रहना हो रहो नादान से

वो जो कल था और अपना भी नहीं था दोस्तों
आज को लेकिन सजा लो एक नई पहचान से

सिर्फ़ बातों से संवरती तो नहीं है जिन्दगी
इल्मो -हिकमत से निखरती है निराली शान से

दिल जलाओगे तो होगी जिन्दगी में रौशनी
इस ज़माने का तकाज़ा है यही इंसान से

दोस्तों रोते रहे तो कुछ न पाओगे यहाँ
जिन्दगी खिलती है लेकिन गीत से गान से

Wednesday, April 2, 2008

बदलो दर्पण !

अब बदल जाओ दर्पण
ये इक्कीसवीं सदी है
देखो सब बदल गए
और तुम ...... दर्पण ही रह गए !
हर चीज़ को
जस का तस दिखाने की
आदत से कब बाज आओगे ?
आदमी की तरह क्या
सच को नहीं छुपाओगे ?
कुछ तो छुपाने की कला सीखो
अरे जो है उसे मारो गोली
जो नहीं दिखती वही सूरत है भोली
इसलिए ना-कुछ को कुछ बनाकर दिखाओ
दर्प न करो दर्पण जरा झुक जाओ .....!!!

रवानी साथ रख लेना .

मोहब्बत का नया अंदाज़ जानी साथ रख लेना
सफर में संग चलने की कहानी साथ रख लेना

बहुत आसान है लड़ना सफर की गर्दिशों से पर
जरा पक्का इरादा और जवानी साथ रख लेना

नहीं आसां पहुँचना मंजिलों पर भूल मत जाना
क़दम अपने उठाओ तो रवानी साथ रख लेना

हमेशा झूठ कहने से कभी इज्ज़त नहीं मिलती
तुम अपने साथ थोड़ी हकबयानी साथ रख लेना

मिलेंगे फूल कम काँटे ही ज्यादा साथ में होंगे
झटक कर हर मुसीबत शादमानी साथ रख लेना

Tuesday, April 1, 2008

ताज झूठ के सर पर देखो !

किस्मत का ये चक्कर देखो
चांदनी घर से बेघर देखो

सड़कों पर बिखरा उजियारा
और अँधेरा घर पर देखो

सौ-सौ आंसू बहा रहे हैं
शिलान्यास के पत्थर देखो

बाबू अफसर सभी नदारद
ऐसा भी तुम दफ्तर देखो

आज के बच्चों के हाथों में
कारतूस और खंज़र देखो

सच का चेहरा उतरा -उतरा
ताज झूठ के सर पर देखो .